Friday 22 February 2019

एक बार फिर से कमल खिलना चाहिए

सोनी किशोर सिंह


हिन्दुत्वको राष्ट्रवाद की संजीवनी पिलाकर बीजेपी सत्ता में आई थी। भाजपा ने सत्ता उस कांग्रेस से छिनी थी जिसने देश को पूरी तरह गर्त में तो डुबोया ही, साथ ही हिन्दुत्व को एक दोयम दर्जे का शब्द बनाकर रख दिया। देशद्रोही वामियों तथा पाकिस्तानपरस्त मुल्लों को कांग्रेस ने रेवड़ियां बांटी और वंदे मातरम, राष्ट्रगान, हिन्दुत्व को गौरवहीन कर दिया। बीजेपी ने लोगों के दिलों में बसे इसी राष्ट्रवाद, देशप्रेम को उभारा और सत्ता अपने हाथ में ले ली। गाय, गंगा, गौरी से होते हुए भारत माता की जय का उदघोष देश में गूंजने लगा। हिन्दुत्व गौरवान्वित हो उठा।
लेकिन इतना काफी नहीं है। सत्ता में आने के बाद पूरे किए जाने वाले वादे बीजेपी भूल गई। न धारा 370 हटी न राम मंदिर बना। और तो और उरी के बाद पुलवामा की घटना हुई लेकिन पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक के अलावा कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो पाई। छुहारे के ट्रकों को सीमा पार रोकने, मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा छीनने, अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति जुटाने से कुछ नहीं  होता। पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला।
जवानों की शहादत का बदला क्या मोदी सरकार ऐसे बेबी स्टेप्स से लेगी ? अगर हाँ, तो 56 इंची सीने और पप्पुगीरी में क्या फर्क रह जाएगा ?  वक्त है कुछ बड़ा करने की। गद्दार पड़ोसी को सबक सिखाने की, अपने वादों (कोई एक ही सही) को पूरा करने की।  देश के बाहर से ज्यादा दुश्मन घर के अंदर छिपे हैं जो मौका ढूँढ़ रहे हैं सत्ता वापसी की। मोदी जी ऐसे दीमकों को मौके मत दीजिए। अभी के दौर में, आपसे बेहतर प्रधानमंत्री कोई नहीं हो सकता। आपसे जनता का मोहभंग हो, इसके लिए राजकुमार अपनी राजकुमारी बहना को भी मैदान में उतार चुका है। संभलिए और सत्ता में वापसी कीजिए। तमाम नाराजगियों के बाद भी कमल और मोदी ही देश के लिए बेहतरीन विकल्प हैं।  

Thursday 22 March 2018

बिहार दिवस


सोनी किशोर सिंह
जहाँ पल उसेन बोल्ट की तरह पलक झपकते भाग रहा है, तो दिन पी. टी. ऊषा बन नज़रों से ओझल होती जा रही है। दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में बहुत कुछ पीछे छूट गया जैसे... लेकिन जो संजो कर रखा है वो तेरी सोंधी सी महक है। मुंबई की तेज रफ्तार में भी दिल गंवई अनगढ़ माटी जैसा रह गया और मन का देसीपना ट्रैफिक जाम की तरह हमारे अंदर ही थम गया है।
यहां हम अपनी यादें ही नहीं अपने हिस्से का बिहार लेकर जीते हैं। वो बिहार जो बागों में बहार है से अलग है, वो बिहार जो मनसे की नफरत से अछूता है। ये वो बिहार है, जो हर बिहारी अपने अन्दाज़ में, अपनी बोली में, अपने पहनावे में, अपने देशप्रेम में बचाकर रखता है।
आप सबको और सबसे ज्यादा ख़ुद को बिहार दिवस की शुभकामनाएं !!!

Sunday 23 August 2015

माउंटेन मैन मांझी

सोनी किशोर सिंह

फिल्म मांझी द माउंटेन मैन एक सतही फिल्म है। हालांकि समीक्षको ने इसे काफी सराहा लेकिन 22 वर्षों की कठिन तपस्या को केतन मेहता एक फिल्मी ड्रामे के अलावा और कुछ नहीं बना पाये। अगर नवाजुद्दीन के शानदार अभिनय और राधिका आप्टे की चपलता को छोड़ दिया जाए तो फिल्म में कोई रस, कोई स्तर और कोई मौलिकता नहीं बचती। ऐसा लगता है कि प्रेरणादायी मील के पत्थर दशरथ मांझी को फिल्म में उतारने से पहले निर्देशक ने कोई होमवर्क नहीं किया। जो किस्से-कहानियां अखबारों की कतरनों, चैनलों के फुटेज से मिले उनपर फिल्म बनाकर वाहवाही लूटने की होड़ में कूद पड़े। किसी भी शख्सियत को फिल्म में उतारने से पहले रिसर्च की जरूरत पड़ती है लेकिन असल ज़िन्दगी के नायक को पर्दे पर उतारने के समय केतन मेहता ने ज्यादा मेहनत नहीं की। फिल्म में कई चीजें बुरी तरह खटकती हैं जो दशरथ मांझी से खुद को कनेक्ट कर पाने से रोक देती हैं। फर्स्ट हाफ तक तो लगता ही नहीं है कि हम बिहार के मुसहर जाति के लोगों को देख रहे हैं। साफ सुथरे घर, नये गमछे, अति ड्रामा करने वाले लोग...और तो और दशरथ जब कई साल के बाद अपने घर आता है तो उसके पिता जो अति गरीबी में है वो नई खाट पर सो रहे हैं। काश कोई केतन मेहता को ये समझा पाता कि मुसहरों के घर न उतने साफ-सुथरे होते हैं न सब के सब गमछा रखते हैं, अगर रखते भी हैं तो मैला कुचैला सा। औरतें भी इतनी साफ-सुथरी की मुसहर जाति की विपन्नता, उनके दुख आदि को महसूस करने के बजाए लोग चुटीले संवादों पर हँसते नजर आते हैं। हाँ सेकेंड हाफ जरा सा बेहतर है लेकिन जैसे ही दशरथ के संघर्ष और उनके महान काम को देख-देख कर मन वाह! कहने को होता है केतन रोमांस की छौंक मार देते हैं और सब गुड़-गोबर हो जाता है। यह सही है कि दशरथ मांझी ने अपनी पत्नी के प्रेम में पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया तो फिल्म में इस अथक परिश्रम और बुलंद हौसले को रेखांकित करना था न कि हर पाँच-सात मिनट के बाद दशरथ को फगुनिया के साथ रोमांस करते दिखाना। इससे फिल्म की गंभीरता, रुहानियत, कनेक्टिविटी तो कम हुई ही एक महान इंसान के महान काम को महज फिल्म की तरह देख कर थियेटर से निकल जाने का मलाल भी होता है।

फिल्म में अगर नवाज के उम्दा अभिनय को छोड़ दें तो यह कहीं से प्रभावित नहीं करती। केतन आपको कम से कम दशरथ के 22 सालों की तपस्या को देखते हुए और होमवर्क करना चाहिए था ताकि मेरे जैसे बिहारी अपने प्रदेश की इस महान विभूति पर बनी फिल्म को देखकर गर्व महसूस करते। फिल्म को आपने फिल्म ही बना दिया अगर उसे ज़िन्दगी बनाते तो लोग थियेटर से यह हौसला लेकर निकलते कि हमें भी कुछ महान करना है, दशरथ मांझी की तरह।  

Friday 7 August 2015

महिलाएं मेकअप के बदले सेहत सुधारें

सोनी किशोर सिंह

अक्सर महिलाओं के शारीरिक स्वास्थ्य के बजाए उनके मेकअप और रूप रंग को निखारने के लिए ही मीडिया और विज्ञापन एजेंसियां कसरत करती रहती हैं। इस दौड़ में टीवी सीरियल, फिल्में और खुद महिलाएं भी आगे रहती हैं। महिला स्वास्थ्य महिला सशक्तिकरण की बुनियाद है लेकिन इसकी अनदेखी कर सशक्तिकरण का आधार साज-श्रृंगार और बोल्डनेस को बना दिया गया है। एक शोध के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया और 70 प्रतिशत कुपोषण की शिकार हैं। वरिष्ठ लेखिका मृणाल पांडे का कहना है कि महिला स्वास्थ्य का एक अहम हिस्सा है प्रजनन स्वास्थ्य, जिस पर अबतक बहुत झिझक और दबे स्वरों में ही चर्चा होती रही है, किशोरियों से घरवालों को प्रजननांगों, माहवारी, सहवास या गर्भधारण जैसे मसलों पर चुप्पी और संकोच बरतने की उम्मीद रहती है। लिहाजा उनको न तो घर पर अपनी माताओं से और न ही स्कूल में शिक्षिकाओं या सहेलियों से प्रजननांगों, उनके महत्व या संक्रमण पर कोई सटीक जानकारी मिल पाती है, गंदे सैनीटरी नैपकिन के प्रयोग से और निजी साफ सफाई की उपेक्षा से कई किशोरियां लंबे समय तक चुपचाप तकलीफदेह संक्रमण झेलती रहती हैं। हाल के दिनों में इन मसलों पर चुप्पी टूटती दिख रही है, जो एक शुभ लक्षण है। पहले सैनिटरी पैड्स के विज्ञापन आने शुरू हुए फिर सोशल मीडिया के मार्फत ध्यान खींचने की कोशिश की गई।


Friday 10 April 2015

जब सरकारें दर्द देने लगें......


सुप्रीम कोर्ट ने दो दशक पहले हर राज्य सरकार को ये हिदायत दी थी कि वे बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए हर्जाने की योजना बनाएं। इस उद्देश्य के लिए केन्द्र ने करोड़ों रूपये आवंटित भी किए लेकिन पीड़िताएं अभी भी आर्थिक सहायता के लिए संघर्ष करती दिखाई देती हैं। दो दशकों बाद कई राज्य सरकारों ने इस योजना को अमली जामा पहनाया है। फिलहाल कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 357ए के तहत हर राज्य सरकार के लिए यह अनिर्वाय है कि वह केन्द्र सरकार के साथ मिलकर पीड़ितों के हर्जाने की योजना बनाएं, जिसके तहत उन्हें मुआवजा दिया जा सके। हालांकि यौन हमलों और एसिड अटैक को लेकर देश के सभी राज्यों ने सर्वाइवर कंपन्सेशन स्कीम (पीड़ित मुआवजा योजना) बनाई तो है लेकिन चीजें बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही हैं।
दिल्ली
अगर बात करें राजधानी दिल्ली की तो डेल्ही विक्टिम कंपन्सेशन स्कीम, 2011 के तहत बलात्कार पीड़िताओं को 3 लाख तक का मुआवजा दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन सच्चाई ये है कि एक तो पीड़िता को यह मालूम ही नहीं होता कि उनके लिए किसी मुआवजे का प्रावधान भी है तो दूसरी तरफ अगर उन्हें पता भी हो तो उन्हें मुआवजे के लिए कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। पिछले तीन वर्षों में सरकार के 15 करोड़ के निर्धारित फंड में से सिर्फ 2 करोड़ रूपये का ही भुगतान किया गया है। दिलचस्प ये है कि सिर्फ 361 प्रकरणों में मुआवजे के आदेश दिए गये और मात्र 91 प्रकरणों में मुआवजा दिया जा सका। क्या और किन कारणों से मुआवजा पीड़िताओं तक नहीं पहुँचा यह प्रशासनिक पेचिदगियों में उलझ सकता है लेकिन रेप सिटी दिल्ली को अगर मानवीय पहलू के आधार पर देखा जाए तो यह संवेदनहीनता की हद है...।  
महाराष्ट्र
अगस्त 2013 में मुंबई में हुए शक्ति मिल सामूहिक बलात्कार कांड के बाद महाराष्ट्र राज्य मंत्रिमंडल ने मनोधैर्य योजना को मंजूरी दी थी, जिसके अन्तर्गत बलात्कार की शिकार महिलाओं व सेक्सुअल दुर्व्यवहार से पीड़ित बच्चों को चिकित्सकीय, कानूनी व आर्थिक मदद के साथ उनके पुनर्वास और काउंसलिंग की व्यवस्था का प्रावधान किया गया था। योजना के तहत पीड़िता को 2-3 लाख के बीच का मुआवजा देना भी तय हुआ। महाराष्ट्र की मनोधैर्य योजना देश में इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि किस तरह बलात्कार पीड़ितों के हर्जाने के मुद्दे से प्रभावकारी ढ़ंग से निपटा जा सकता है। इस योजना के तहत अभीतक लगभग 600 पीड़ितों को मुआवजा मिल चुका है। मुआवजे की पूरी प्रक्रिया स्वचलित है। एफआईआर दर्ज कराने के साथ ही पूरा सिस्टम सक्रिय हो जाता है और पीड़िता को मुआवजे की राशि का 50 फीसदी हिस्सा मिल सकता है और बची हुई राशि चार्जशीट दाखिल होने के बाद मिलती है।  
कर्नाटक
कर्नाटक ने केन्द्र सरकार के साथ मिलकर वर्ष 2011 में विक्टिम कंपन्सेशन स्कीम बनाई थी। वर्ष 2012 में उसमें कुछ संशोधन भी किया लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि वर्ष 2012-13 के लिए सरकार द्वारा आवंटित 1 करोड़ की राशि में से मात्र 25 लाख को मुआवजे के तौर पर बाँटा गया और बची हुई राशि को रद्द कर दिया गया।
पश्चिम बंगाल
राज्य में विक्टिम कंपन्सेशन स्कीम के तहत किसी को कोई मुआवजा नहीं दिया गया क्योंकि इसके लिए राशि ही आवंटित नहीं की गई है। प्रशासन का कहना है कि मुआवजे के लिए विस्तृत दिशा निर्देश अबतक नहीं बनाए गए हैं इसलिए अबतक इस योजना के तहत किसी की मदद नहीं की गई है। 

साभार फेमिना पत्रिका

Wednesday 3 September 2014

उम्र नहीं बाधा- डॉ. सुशील मदान



सोनी किशोर सिंह

डॉ. सुशील मदान
जब जिन्दगी अपने आखिरी पड़ाव पर हो और उत्साह बालपन की ठिठोलियों में मशगूल तो जीवन का आनंद कई गुणा बढ़ जाता है। धीरे-धीरे बुढ़ापा को झेलने की मजबूरी में कुढ़ते-चिढ़ते वृद्धों में अगर बाल सुलभ जीवन संचार हो जाये तो जीवन का अंत बहुत सुखमय होता है। जो बुजुर्ग जीवन के तमाम झंझावातों को हँसी खुशी झेल लेते हैं वो बुढ़ापे में भले ही शरीर से लाचार हो जायें, लेकिन अगर उनका मन मस्तिष्क सक्रिय और समाजोपयोगी बना रहे तो वो अपनी वृद्धावस्था को भी उपयोगी बना लेते हैं।
जब जीवन उत्साह से लबालब हो तो उम्र कोई बंदिश नहीं लगा पाता। तमाम शारीरिक, मानसिक व्याधियों पर इंसान विजय प्राप्त कर लेता है। बुढ़ापे को अभिशाप समझने वाले बुजुर्ग अगर अपनी खूबियों को पहचानकर उन्हें विकसित और संवर्धित करते रहे तो जीवन के अंत में भी वो समाज और लोगों के लिये बहुत महत्वपूर्ण रहते हैं। जिन्दगी को इसी जिन्दादिली से जीते हुये उम्र के 78वें वर्ष में भी डॉ. सुशील मदान बेहद सरल, सजग, चुस्त और आशावादी हैं। उनकी व्यस्त दिनचर्या किसी युवा को भी सोचने पर मजबूर कर देगी कि जीवन का प्रत्येक पल कैसे उपयोगी बनाया जाये। पेशे से बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. सुशील मदान वृद्धावस्था में किसी पर बोझ नहीं है बल्कि वो उन तमाम असहायों की मुफ्त चिकित्सा और भोजन आदि की व्यवस्था करती हैं जो उनके पास जाकर अपनी तकलीफ बताते हैं।
प्रख्यात चिकित्सक और कर्मठ समाजसेवी
डॉ. सुशील मदान वो शख्सियत हैं जिन्होंने पिछले कई दशकों तक नई दिल्ली और कोलकाता के अस्पताल में बच्चों का इलाज किया साथ ही मेडिकल स्टूडेंट को पढ़ाया भी। प्रो. डॉ. मदान बच्चों के स्वास्थ्य और उनके खान पान को लेकर बहुत सजग हैं। इस वजह से उन्होंने एक किताब भी लिखी है। ग्रोइंग अप नाम की ये किताब स्कूल जानेवाले उन तमाम किशोर बच्चों के स्वास्थ्य संवर्धन के लिये उपयोगी है जो अपनी बढ़ती उम्र में कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक, पोषकीय, संवेगात्मक और चिकित्सकीय समस्याओं से जूझते हैं। यह किताब शिक्षकों, माता-पिता और बच्चों तीनों के लिये समान रूप से फायदेमंद है।  
विभाजन का दर्द भी झेला
डॉ. सुशील मदान मूल रूप से सरगोदा (अब पाकिस्तान में) की हैं। जब बँटवारे के समय जगह-जगह भीषण दंगे होने लगे तो डॉ. मदान के माता-पिता ने यह निर्णय लिया कि भारत में जाकर नये जीवन की शुरूआत की जाये। किसी तरह से उनका परिवार जान बचाकर हिन्दुस्तान आया। उनके पिताजी अनाज के व्यापारी थे। पार्टीशन के बाद दिल्ली के करोल बाग में उनलोगों को रहने की जगह मिली लेकिन कारोबार पाकिस्तान में छूट गया था। सबकुछ नये तरीके से व्यवस्थित करना था। बहुत कठिन काम था यह, लेकिन डॉ सुशील मदान के माता-पिता ने हिम्मत नहीं हारी और फिर से शुरूआत की। सुशील मदान कहती हैं कि मेरे माता-पिता बहुत परिश्रमी थे। उन्होंने जीवन को अपनी शर्तों और अपने अनुशासन में बाँधा और मैं भी उनका अनुसरण करती आई हूँ।
दिल्ली की टॉपर
डॉ. सुशील मदान बचपन से कुशाग्र बुद्धि की थीं। वो कहतीं हैं कि विभाजन के बाद दिल्ली तो किसी तरह से पहुँच कर एक छत नसीब हो गई थी, लेकिन इन सबके बीच मेरी पढ़ाई छूट गई। काफी सोच-विचार कर दिल्ली में ही किसी तरह मेरा एडमिशन हुआ। मैं सरगोदा में छठी में थी इसलिये दिल्ली में सातवीं में दाखिला चाहती थी। लेकिन जब स्कूल वालों ने सातवीं के बजाये नवीं में दाखिला दिया तो मजबूरी में उनको एडमीशन लेना पड़ा। तीन महीने बाद ही परीक्षा हुई और दिल्ली में डॉ. सुशील मदान ने टॉप किया। स्कूल के प्रिंसिपल ने बधाई देते हुये कई जगहों पर उनका पोस्टर लगाया। हालाँकि इस बात से उनके पिताजी को परेशानी हुई और उन्होंने कहा कि मेरी बच्ची की तस्वीर को गली मुहल्लों में इस तरह से नहीं लगाना चाहिए। इसके बाद डॉ. मदान की शिक्षा यात्रा आगे बढ़ती गई। सन् 1958 में उन्होंने लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की डिग्री हासिल की।
कदम-कदम पर मिला सहयोग
12 अक्टूबर 1963 को डॉ. सुशील मदान की शादी सुरेन्द्र कुमार मदान से हुई। शादी के बाद वो अपने पति सुरेन्द्र मदान के साथ दिल्ली से कोलकाता चली गई। कोलकाता में उन्होंने एकमात्र चाइल्ड हॉस्पीटल और मेडिकल कॉलेज इन्स्टीट्यूट ऑफ चाइल्ड हर्ट में नौकरी शुरू कर दीं। यहाँ डॉ. मदान पूरी शिद्दत से बच्चों का इलाज तो करती हीं थी साथ ही मेडिकल स्टूडेंट को चाइल्ड हर्ट के बारे में पढ़ाती भी थीं। साथ ही साथ वो ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर वहाँ की स्वास्थ्य समस्याओं से रुबरू होकर लोगों को स्वास्थ्य सुविधायें भी मुहैया करवाती थीं। इन सब कार्यों में उनके जीवन साथी सुरेन्द्र कुमार मदान का हमेशा सहयोग बना रहा। डॉ. मदान कहती हैं कि आगे बढ़ने और सकारात्मकता बढ़ाने में परिवार का सहयोग आवश्यक है और उन्हें पति और बच्चों का भरपूर सहयोग मिला जिससे वो अपने कर्म-पथ पर आगे बढ़ती रहीं।
बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित
डॉ. सुशील मदान कहती हैं कि बच्चों में डायरिया सबसे सामान्य बीमारी है। दूषित पानी की वजह से होने वाली ये बीमारी बच्चों में सबसे ज्यादा होती है। इसके अलावा ब्रोंकाइटिस, न्यूमोनिया वगैरह बीमारियाँ होती हैं। हालाँकि उन्हें खुशी है कि अपने देश में पोलियो का उन्मूलन हो गया है।
बुढापे को दिया मात
डॉ. सुशील मदान आज भी रोजाना खुद खाना बनाती हैं, मॉर्निंग वॉक करती हैं, कई राष्ट्रीय-अतर्राष्ट्रीय जर्नल पढ़ कर स्वास्थ्य समस्याओं का विश्लेषण करती हैं। लेकिन इन सबके साथ जो सबसे महत्वपूर्ण काम है वो है मरीजों का निःशुल्क इलाज। डॉ. मदान की सेवा भावना इतनी प्रबल है कि कई बार वो मरीजों की दवाईयाँ और खाने का इंतजाम भी करती हैं।
खुशहाल दंपत्ति
एक ओर आज जहाँ एकल परिवार भी टूट की कगार पर है, वहाँ पर मदान दंपत्ति का जीवन एक मिसाल है। दोनों ने एक दूसरे को बखूबी समझा है। अगर कोई नाराज हो जाता है तो उसकी नाराजगी को दूसरा सम्मान करता है। एक-दूसरे को सम्मानित दृष्टि से देखने की कला के कारण ही आज मदान दंपत्ति इतनी खुशहाल हैं।
सूत्र वाक्य
डॉ. सुशील मदान कहती हैं कि लाइफ इज ब्यूटीफुल बट लाइफ इज स्ट्रगल। आपको लगातार बाधायें पार करनी होगी। आपके पास इच्छा शक्ति होनी चाहिए इन तमाम परेशानियों से छुटकारा पाकर जिन्दगी जीने का।
 आज भी याद है वो कत्लेआमः सुरेन्द्र कुमार मदान
उस वक्त हमलोग लाहौर में थे। मेरे पिताजी ब्रिटिश आर्मी में डॉक्टर थे और सिंगापुर हॉस्पीटल में उनकी तैनाती थी। सन् 1943-44 में वहाँ उनकी मौत हो गई लेकिन ब्रिटिश सरकार ने हमलोगों को कोई सूचना नहीं दी। हमलोग इस सदमे से अभी उबरे भी नहीं थे कि बँटवारे की घोषणा हो गई और रक्तेआम शुरू हो गया। परिवार और रिश्तेदार के ढ़ेर सारे लोग मारे गये। मैं और मेरी माँ किसी तरह से बचते-बचाते हिन्दुस्तान पहुँचे। अमृतसर पहुँचने का वो एक घंटे का रास्ता 44 घंटे में खत्म हुआ। अमृतसर पहुँचने तक ट्रेन के अधिकांश मुसाफिर कत्ल कर दिये गये थे। पर मैं अपनी माँ के साथ किसी तरह सुरक्षित पहुँच गया था। 14 साल की उम्र रही होगी मेरी। इसलिये वो मौत का सफर हमेशा जेहन में बैठा रहा। मुझे याद है अमृतसर में कुछ दिन रहने के बाद हमलोग अम्बाला पहुँचे। वहाँ हमारी एक आंटी थी। उनके पास एक रूम था जहाँ कई रिश्तेदार रहते थे। वहाँ रोड के किनारे एक छोटा सा बल्ब लगा था उसी की रोशनी में ढ़ेर सारे बच्चे पढ़ते थे। पानी के एक नलके के पास लम्बी लाइन लगी रहती थी।

मैं कविता को जीता हूँ- विमलेश त्रिपाठी



सोनी किशोर सिंह

विमलेश त्रिपाठी
शब्दों में ही खोजूँगा
और पाऊँगा तुम्हें
 
वर्ण-वर्ण जोड़कर गढूँगा
बिल्कुल तुम्हारे जितना ही सुन्दर
एक शब्द
और
आत्मा की संपूर्ण शक्ति भर
फूँक दूँगा निश्छल प्राण
जीवंत कर तुम्हें
कवि हो जाऊँगा….
युवा कवि और कथाकार विमलेश त्रिपाठी की ये पंक्तियाँ इस बात को रेखांकित करती हैं कि इसके रचयिता न सिर्फ कविता को जीते-समझते हैं बल्कि शब्दों में प्राण भरकर दूसरों के लिये भी संजीवनी देते हैं। बिहार के बक्सर जिले के हरनाथपुर गांव में 7 अप्रैल 1979 को जन्में विमलेश ने बहुत कम समय में साहित्य के क्षेत्र में एक मजबूत उपस्थिति दर्ज की है। कविता और कहानी में समान रूप से सक्रिय विमलेश की रचनायें देश के लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं, साथ ही इन्हें युवा शिखर सम्मान, भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार, ठाकुर पूरण सिंह स्मृति सूत्र सम्मान, राजीव गांधी एक्सीलेंट एवॉर्ड एवं भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार समेत अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। विमलेश का कविता संग्रह हम बचे रहेंगे, एक देश और मरे हुये लोग तथा कहानी संग्रह अधूरे अंत की शुरुआत विशेष रूप से चर्चित रही और लोगों ने इसे काफी सराहा।
विमलेश त्रिपाठी की रचनाशीलता, जीवन संघर्ष तथा उनके सामाजिक सरोकारों के बारे में संस्कार पत्रिका ने उनसे लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश-
कहते हैं कि बचपन की यादें कभी धुंधली नहीं पड़ती, आपका बचपन कैसा रहा ? 
मेरा बचपन गाँव में बीता। पिताजी काशीनाथ त्रिपाठी और माताजी गायत्री देवी का भरपूर स्नेह मिला, लेकिन बचपन में मैं बहुत जिद्दी और शरारती था। एक घटना अभी तक याद है, एक बार पिताजी शहर से हनुमान चालीसा की एक पुस्तक लेकर आए। मैं और हमारे बड़े भाई में लड़ाई होने लगी कि उस पुस्तक को कौन लेगा। पिताजी ने शर्त लगाई कि जो सुबह उठकर नहा-धोकर हनुमान चालीसा का पाठ कर लेगा, यह पुस्तक उसी की हो जाएगी और मैंने वह कर लिया था। अब बड़े भाई नहीं हैं तो इस घटना की याद कई बार मुझे उद्वेलित कर जाती है। पहली कक्षा से पाँचवी तक की पढ़ाई गाँव में हुई। इसके बाद बाबा ने मुझे पढ़ने के लिए शहर भेज दिया। मेरे पिता कोलकाता में रेलवे में काम करते थे तो मैं कोलकाता आ गया और बाकी की सारी पढ़ाई-लिखाई कोलकाता शहर में ही हुई। गाँव के छूटने का एक दर्द मेरे अंदर खूब गहरा रहा जो मेरे पहले कविता संग्रह हम बचे रहेंगे में दिखायी पड़ता है। यह गाँव की स्मृतियाँ ही हैं जो सबसे पहले मेरी रचना (कविता) की भूमिका बनीं। मैं जब तक गाँव में रहा पढ़ाई के साथ खेती-बाड़ी से भी जुड़ा रहा। जब शहर आया तो गाँव की याद बहुत आती थी, मैं अकेले में बैठकर खूब रोता था। मेरे गाँव का छूटना मेरे जीवन की एक बड़ी घटना थी। उसका प्रभाव इतना व्यापक है कि आज भी मेरी रचनाओं में गाँव की गूँज सुनायी पड़ती है।
तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि लेखन की पृष्ठभूमि गाँव में ही तैयार हो गई ?
कुछ हद तक यह बात सही है। दरअसल, बचपन से ही साहित्य से लगाव रहा। लेकिन साहित्य के नाम पर गाँव में मेरा परिचय सिर्फ रामचरित मानस के साथ ही हो सका। इसके अलावा पाठ्य पुस्तक की कहानियाँ और कविताएं आकर्षित करती थीं। लेखन की शुरूआत कक्षा दसवीं-ग्यारहवीं से हुई जब मैं कुछ तुकबंदिया करने लगा था। लेकिन विधिवत लेखन तब शुरू हुआ जब समकालीन साहित्य से मेरा परिचय हुआ, वह विश्वविद्यालयीन समय था। उस समय तक मैं कविताएं लिखने लगा था। हां, वे कविताएं मैंने छपने के लिए नहीं भेजीं। पहली बार मेरी तीन कविताएं कोलकाता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका वागर्थ में 2003 में छपीं।
उत्तर भारत में आमतौर पर सरकारी नौकरी को तरजीह दी जाती है, ऐसे में जब आपने लेखन को अपनाया तो घरवालों की प्रतिक्रिया किस तरह की रही।
मेरे पिता चाहते थे कि मैं आइएएस बनूँ। खुद मैंने भी इस सपने को लेकर बहुत मेहनत की लेकिन एक समय के बाद लगा कि आइएएस बनना मेरे स्वभाव में नहीं है। अगर मैं आइएएस बन भी जाता तब भी साहित्य का नाता मुझसे नहीं टूटता। बाद में एक ऐसा समय आया जब अध्यापन की ओर मेरा झुकव हुआ, लेकिन विश्वविद्यालयीन राजनीति की वजह से अध्यापन के क्षेत्र से दूर हूँ। लेखन को चुनना मेरी अपनी पसंद है। घर वाले या आस-पास के लोग लेखन को अच्छी निगाह से नहीं देखते। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था लेकिन जब मुझे ज्ञानपीठ का युवा पुरस्कार मिला और अखबारों में और कई पत्रिकाओं में मेरी तस्वीरें छपीं तो कई लोगों को यह अच्छा लगा। मेरे घर वालों को जो मुझसे शिकायतें थीं वह कम हुईं।
गद्य और पद्य दोनों में आप खुद को किसमें ज्यादा सहज महसूस करते हैं ?
पद्य मेरी रूचि की विधा है। मेरी शुरूआत भी कविता लेखन से ही हुई इसलिए कविता मेरे लिए पहले प्यार की तरह है। गद्य को हमेशा मैंने चुनौती की तरह लिया है। इसलिए मैंने कहानियाँ भी लिखीं और उपन्यास भी। बहुत सारे लोग मुझे अच्छा गद्यकार मानते हैं लेकिन मैं खुद को कवि ही मानता हूं।
हिन्दी साहित्य की क्लिष्टता के कारण युवा इससे नहीं जुड़ पा रहे हैं, क्या किया जाये कि युवाओं में हिन्दी के प्रति आकर्षण बढ़े ?
क्लिष्टता उतनी बड़ी वजह नहीं है जितनी बड़ी वजह इलेक्ट्रनिक मिडिया, टीवी और फिल्में हैं। साथ ही हम अपने बच्चों के मन में शुरू से साहित्य पढ़ने का संस्कार नही डाल पा रहे हैं। मैंने स्वयं साहित्य को सहज बनाने के लिए बहुत काम किया है, मेरा यह मानना है कि साहित्य इतना सरल और सहज हो कि वह आम पाठकों तक अपनी पहुँच बनाए। लेकिन पढ़ने का संस्कार विकसित करना और पढ़ने-लिखने की संस्कृति का विकास तो हमें करना ही होगा।
अन्य साहित्यकारों की तरह आपको भी अपनी रचनाओं में किसी खास रचना के लिये विशेष स्नेह होगा ?
वैसे तो अभी लम्बा सफर तय करना है लेकिन अबतक की रचना प्रक्रिया पर गौर करूं तो सभी में कुछ न कुछ बहुत अच्छा लगता है। अभी-अभी मैंने एक उपन्यास लिखा है – कैनवास पर प्रेम, जो जल्द ही भारतीय ज्ञानपीठ से छपकर आने वाला है। यह संपूर्ण उपन्यास एक ऐसे व्यक्ति की जीवन-कथा है जिसे मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ।  अवश्य ही उसमें कल्पना का योग है लेकिन यह उपन्यास फिलहाल मेरे दिल के बहुत करीब है।
आजकल क्या लिख रहे हैं ?
प्रेम कविताओं का एक संग्रह तैयार किया है जो उजली मुस्कुराहटों के बीच नाम से छपेगा। एक उपन्यास लिख रहा हूँ जो साइबर संसार, संबंधों की जटिलता और साहित्यिक राजनीति पर एक गहन टिप्पणी की तरह है।
समकालीन साहित्यकारों के रचना कर्म पर कुछ कहना चाहेंगे ?
समकालीन रचना कर्म बहुत आश्वस्त करने वाला है। खासकर युवाओं की एक बहुत बड़ी जमात लेखन में सक्रिय है और विभिन्न विषयों पर लगातार लिख रही है। मैं समकालीन रचनाशीलता को सकारात्मक और हसरत भरी दृष्टि से देख रहा हूँ।
धर्म के प्रति आपकी क्या आस्था है ?
मुझे धर्म से परहेज नहीं है। मुझे यह विश्वास है कि धर्म जोड़ने का काम करता है। जो धर्म तोड़ने का काम करे उसे मैं धर्म नहीं मानता। धर्म हमें जीवन जीने की कला सिखाता है और हमें अपने सुमार्ग से भटकने नहीं देता। मेरे लिए धर्म की परिभाषा एक ही है जिसे तुलसी दास ने लिखा है – परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीडा सम नहिं अधमाई।।
संस्कृत भाषा हमारी आदिभाषा और वैदिक संस्कृति को जानने-समझने का सूत्र है, आपका क्या मानना है ?
मुझे याद है कि मैंने बचपन में संस्कृत को ऐच्छिक भाषा के रूप में चुना था। मुझे संस्कृत से आज भी बहुत प्यार है। भारतीय संस्कृति की गहराई को समझने के लिए यह भाषा जरूरी है। हमारे सभी प्राचीन मानक ग्रन्थों की भाषा संस्कृत है, यहाँ तक कि महान साहित्यकार कालिदास ने भी संस्कृत में ही सबकुछ लिखा है। संस्कृत भाषा को बचाए रखना हमारी सभ्यता और संस्कृति की आस्मिता के लिए जरूरी है।
गाय, गंगा और गौरी (कन्या) भारतीय संस्कृति के आधारस्तंभ हैं। इनकी स्थिति को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिये क्या करना चाहिए ?
सबसे पहले तो हमें अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा। हमें यह समझना होगा कि इन तीनों की कितनी उपयोगिता हमारे समाज में है। इन तीनों के बिना हम अपने समाज की कल्पना नहीं कर सकते। यह अच्छी बात है कि वर्तमान सरकार गंगा के लिए सोच रही है, उसे अन्य चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए।